एक सास बहू की कहानी
एक सास बहू थी। बहू का पति विदेश गया हुआ था। एक दिन सास ने बहू से अग्नि लाकर भोजन बनाने को कहा। बहू गाँव से अग्नि लेने गई। लेकिन किसी ने भी अग्नि नहीं दी। और कहा कि, जब तक दशामाता की पूजा न हो जाये अग्नि नहीं मिलेगी। बहू खाली हाथ घर लौट आई। उसने सास से कहा कि गाँव में दशा माता की पूजा है, इसलिए कोई अग्नि नहीं देता।
दशामाता की पूजा
शाम को सास अग्नि लेने गई। तब स्त्रियों ने कहा कि, सवेरे बहू आई थी, परन्तु हमारे यहाँ पूजा हुई नहीं थी, इसी कारण अग्नि नहीं दे सकते थे। ऐसा कहकर उन्होने अब सास को अग्नि दे दी, क्योंकि अब माता की पूजा हो चुकी थी।
गाय का बछड़ा और व्रत
सास अग्नि लेकर घर के दरवाजे तक पहुँची ही थी कि, एक व्यक्ति बछड़ा लिये आया। उसके पीछे एक गाय भी आ रही थी जिसने अभी-अभी बछड़ा दिया था । सास ने उस व्यक्ति से पूछा कि क्या इस गाय ने पहली बार बछड़ा दिया है? आदमी ने कहा हाँ पहली बार ही बछड़ा दिया है।
सास ने बहू से कहा कि हम तुम भी दशा मटा के गंडे लें और व्रत करें। दोनों ने गंडे की पूजा की। सास और बहू ने दस-दस अर्थात बीस फरे (मोटी रोटी) बनाए। इक्कीसवाँ फरा गाय को दिया। दशामाता की पूजा करने के बाद सास-बहू दोनों पारणा करने बैठी।
पति का आगमन और बहू का दुर्भाग्य
उसी समय बहू का पति विदेश से आ गया। उसने दरवाजे पर से आवाज लगाई। सुनकर माँ ने मन में कहा कि पारणा कर चुकूंगी, तब दरवाजा खोलूँगी। बहू ने अपनी थाली का अन्न इधर-उधर करके जल्दी से पानी पिया और उठ खड़ी हुई। उसने तुरंत जाकर दरवाजा खोला।
पति ने पूछा कि माता कहाँ है? बहू ने कहा कि वह तो अभी पारणा कर रही है। पति बोला कि इतने दिनों तक न जाने तू कैसी रही ? माता लाएगी, तब जल पिऊँगा। माता पारणा कर अपनी थाली धोकर पी चुकी, तब लड़के के पास गई। माता ने थाली परोसी फिर बेटा भोजन करने बैठा।
हाथ में प्रथम ग्रास लिया कि फरों के टुकड़े जो बहू ने थाली से फेंक दिये थे, उचक कर लड़के के सामने आने लगे। लड़के ने माँ से पूछा की यह क्या है? माँ बोली बहू जाने। सुनते ही लड़का आग बबूला हो गया। बोला जिसके चरित्र की तुम साक्षी नहीं हो, उसको अभी बाहर करो। माता ने पुत्र को हर तरह से समझाया, परन्तु उसने एक न मानी। वह यही कहता रहा कि उसे बाहर निकालो, तभी मैं घर में रहूंगा।
माँ ने सोचा, बहू को थोड़ी देर के लिए बाहर कर देती हूँ। थोड़ी देर में लड़के का गुस्सा शांत हो जाएगा। फिर बहू को वापस अंदर बुला लूँगी। सास ने बहू से कहा घर के दरवाजे से बाहर निकल कर बरामदे की छत के नीचे खड़ी रह।
जब बहू वहाँ जाकर खड़ी हुई, तो छत बोली कि दशा माता के विरोधी को मैं छाया नहीं दे सकती। तब बहू वहाँ से हट कर कचरे के ढेर पर जाकर खड़ी हो गई। वह कचरा बोला इतना भार कूड़े का नहीं, जितना तेरा है। चल यहाँ से हट कर खड़ी हो। इस तरह वह जहाँ जाती वहाँ से हटाई जाती। फिर बहू अत्यन्त दुःखी होकर जंगल में भाग गई। जंगल में भूखी प्यासी फिरती-फिरती वह एक अंधे कुएँ में गिर पड़ी, पर उसे चोट न आई। वह नीचे जाकर बैठ गई।
राजा नल का बहू से मिलना
उसी समय राजा नल शिकार खेलते-खेलते वहाँ आ पहुँचे। उनके साथ के सब लोग बिछुड़ गये थे। वे प्यास के मारे भटकते हुए उसी कुएँ पर आए, जिसमें बहू गिरी हुई थी। राजा नल के भाई ने कुएँ में लोटा डाला, तो बहू ने उस लोटे को पकड़ लिया। तब भाई ने राजा से कहा कि, इस कुएँ में तो किसी ने लोटा पकड़ रखा है।
तब राजा ने कुएँ के पास जाकर कहा कि भाई! तू यदि पुरुष है तो मेरा धर्म का भाई है। यदि स्त्री है तो मेरी धर्म की बहन है। जो भी हो, बोलो। बहू ने आवाज दी। राजा ने उसे कुएँ के बाहर निकाला और हाथी पर बिठाकर अपनी राजधानी में ले आए।
महाराज को महलों की ओर आते देखकर महारानी को खबर दी गई कि महाराज आ रहे हैं। और वह रानी भी साथ ला रहे हैं। रानी बड़ी दुःखी हुई। महाराज सामने आ पहुँचे। तब रानी ने विनय की। महाराज मुझसे ऐसा क्या भूल हुई जो आपको दूसरा विवाह करना पड़ा ? इस पर नल ने हंसकर कहा कि, तुम्हारी सौत नहीं मेरी बहन है। यह सुनते ही रानी का मुँह खिल उठा। राजा ने बहू का नाम मुँहबोली बहन रखा और उसके लिए अलग महल बनवा दिया।
मुंहबोली बहन और रानी
एक दिन राजा की एक घोड़ी एनई बच्चा दिया तब मुँहबोली बहन ने अपनी दासी से पूछा की क्या घोड़ी ने पहली बार बच्चा दिया है, या दूसरी या तीसरी बार? दासी ने जवाब दिया पहली बार ही है।
तब बहन ने रानी से कहा – आओ भाभी, हम-तुम दोनों दशामाता के डोरे लें। रानी ने पूछा किसके डोरे और कैसे डोरे? तुम मुझे समझाओ। बहन ने कहा दशामाता के व्रत का यह नियम है कि, पहले पहल जब गाय या घोड़ी या कोई स्त्री बच्चा देती है, तब डोरा लेकर व्रत आरंभ करें। नौ व्रत करने के बाद दसवें दिन उस डोरे का पूजन करके विसर्जन करें। इसी के साथ उसने उसको पारणा के नियम भी बतलाए।
तब रानी बोली ननद! यह कैसा व्रत है? ननद बोली भाभी! मुझे जो चाहती सो कह लो, परन्तु व्रत के सम्बन्ध में कुछ मत कहो। मैं इसी व्रत के पालन में गलती करने के कारण मारी-मारी फिरती हूँ ,और तुम्हारे द्वार आई हूँ।
ऐसा कहते हुए बहन ने पूर्ण श्रद्धा से डोरा लिया। नौ दिन तक नौ व्रत किए और नौ कथाएँ कही। दसवें दिन विधिवत पूजन किया। गोलाफरा बनाए और शाम को पारणा करने बैठी।
दशा माता की प्रेरणा से बहन का वापस अपने पति से मिलना
उसी समय बहन के पति को कुछ अनायास प्रेरणा हुई । वह अपनी माता से आज्ञा लेकर अपनी स्त्री का पता लगाने निकला। ढूँढता हुआ वह राजा नल की राजधानी पहुँचा।
एक कुएँ पर उसने औरतों को बातें करते सुना। एक औरत बोली की राजा, हाल में मुँहबोली बहन लाए हैं। बड़ी सुन्दर है, आजकल उसी का किया हुआ सब कुछ होता है। दूसरी बोली वह जैसी सुन्दर है वैसी ही धर्मात्मा भी है। जो उसके दरवाजे पर जाता है, अपनी इच्छा जितनी भिक्षा पाता है। तीसरी बोली यह तो सब ठीक है, परन्तु अब तक पता भी न चला कि, वह कौन है?
स्त्रियों की बातें सुनकर बहन का पति, साधु वेश बनाकर, राजा नल की मुँहबोली बहन के महल के द्वार पर पहुँचा। और आवाज लगाई, तो सेवक उसे भिक्षा देने लगे। पति ने भिक्षा लेने से इंकार कर दिया, और कहा जब भिक्षा देने वाली स्वयं भिक्षा देने आएगी तब लूँगा। तब लोगों ने कहा, इस समय वह दशामाता का व्रत करके पारणा कर रही है। तब तक ठहरे रहो। पति चुपचाप बैठा रहा।
पारणा करने के बाद बहन मुट्ठी भरकर मोती लायी। परन्तु पति को पहचानकर मुस्कराती हुई लौट गई। दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया था। रानी ने ननद को मुस्कराते देखकर पूछा आज इस परदेशी को देखकर हंसी हो, इसका क्या कारण है ? उसने उत्तर दिया कि वह हमारे ही घर वाले हैं। रानी ने राजा से कहा तुम्हारी मुँहबोली बहन के घर वाले आए हैं। राजा ने कहा! उनसे कह दिया जाए कि वापस घर जाकर, अपनी हैसियत से आएँ। तब मैं बहन की विदाई करूँगा। बहन का पति वापस चला गया।
बहन की राजा नल के महल से विदाई
घर जाकर बहन के पति ने माता से कहा की, तुम्हारी बहू राजा नल के यहाँ उसकी बहन होकर रहती है। नियम धर्म से दिन बिताती है। तब माता ने आज्ञा दी कि तुम उसे ले आओ। वह डोली, कहार आदि के साथ फिर राजा नल के नगर में गया।
राजा ने समधी की हैसियत से उसका स्वागत किया। कुछ दिन उसकी मेहमान नवाजी करने के बाद विधिपूर्वक बहन की विदाई की।
जब वह महल से बाहर निकलकर चलने लगी, तब महल भी उसके पीछे-पीछे चलने लगा। रानी बोली – ननद जी! तुम चली और मेरा महल भी ले चली। जरा लौटकर पीछे की ओर देखती जाओ। उसने देखा कि राजा का सम्पूर्ण राजसी वैभव लुप्त हो गया है। बहन तो अपने पति के साथ जाकर आनन्द से रहने लगी, परन्तु राजा नल का खस्ता हाल हो गया।
राजा नल और रानी दमयंती की कुदशा
दोनों राजा और रानी यहाँ-वहाँ फिरने लगे। तब राजा नल बोले – रानी! जहाँ राज किया, वहाँ इस दशा में नहीं रहा जाता है। इसलिए यहाँ से जाना ही उचित है। रानी पतिव्रता थी। राजा-रानी दोनों महल से निकल दिए।
चलते-चलते एक गाँव के पास पहुँचे। वहाँ वृक्षों में अच्छे-अच्छे बेर लगे हुए थे। राजा-रानी दोनों वहाँ ठहरे। वे बेर बीनने लगे, परन्तु बेर लोहे के हो जाते थे। राजा-रानी जो वस्तु को हाथ लगाते थे वह पत्थर इत्यादि होता गया। राजा-रानी आगे बढ़े।
रास्ते में उन्हें एक बनिया मिला। उसने राजा नल को पहचान कर रानी को आटा दिया। वे आटा लेकर एक नदी के किनारे गए। वहाँ रानी भोजन बनाने लगी ,और राजा स्नान करने लगा। रानी ने रोटियाँ सेंककर रख ली। जब राजा आए और भोजन करने बैठे। तो रोटियाँ ईंट के समान हो गई।
राजा नल और रानी दमयंती का अपनी मुंह बोली बहन के यहाँ जाना
राजा-रानी वहाँ से चलकर अपनी मुँह बोली बहन के यहाँ गए। बहन ने सुना कि उसके भाई-भाभी आए हैं। उसने पूछा कि कैसे आए हो? जवाब मिला कि वे बहुत ही खस्ता हाल में आए हैं। यह सुनकर बहन को बड़ी लज्जा आई। उसने उन्हें एक कुम्हार के यहाँ ठहरा दिया। शाम को एक थाल सजा कर, वो खुद भाभी से मिलने गई। उसने भाभी के सामने थाल रखा, तो भाभी ने कहा की इस थाल में जो कुछ है, कुम्हार के चक्के के नीचे रख दीजिये और चली जाओ।
वह थाल का सामान चक्के के नीचे रखकर चली गई। थोड़ी देर में राजा ने रानी से पूछा, बहन आई थी? रानी ने कहा आई तो थी, पर जो कुछ लाई थी, मैंने उसे चक्के के नीचे रख दिया है। राजा ने देखा, कंकड़-पत्थर के सिवा और कुछ भी नहीं था। राजा समझ गया कि यह सब कुदशा है।
राजा नल और रानी दमयंती का अपने मित्र के यहाँ जाना
फिर वे चलकर अपने मित्र के घर गए। मित्र ने सुना कि उनके मित्र नल आए हैं, तो उसने पूछा कैसे आए हैं? इन लोगों ने कहा बहुत ही खस्ता हालत में आए हैं। मित्र ने दुखी होकर कहा कि जैसे भी आए, पर आखिर मित्र हैं। मित्र ने बड़े आदर भाव से उनका स्वागत किया, भोजन कराया और एक कमरे में उनके सोने के लिए पलंग बिछवा दिया। उस कमरे की खिड़की पर नौलखा हार टंगा हुआ था। आधी रात के समय राजा सो गए थे। रानी ने देखा कि हार वाली खूंटी, के पास वाली दीवार में एक मोर का चित्र बना हुआ था। वह मोर हार को धीरे-धीरे निगल रहा है। रानी ने राजा को जगाकर वह दृश्य दिखाया। तब राजा ने कहा की यहाँ से भी चुपचाप चलना चाहिए, नहीं तो सवेरे चोरी का कलंक लगेगा। राजा-रानी दोनों रात को उठकर भागे चले।
राजा नल और रानी दमयंती को कारावास
वहाँ से चलकर वे एक अन्य राजा की राजधानी में पहुँचे। वहाँ सदाव्रत दिया जाता था। राजा-रानी दोनों सदाव्रत में पहुँच गए। परन्तु उस समय सदाव्रत बंद हो चुका था। वहाँ के राजा के कर्मचारियों ने कहा कि राजा और रानी न जाने कहाँ से आए हैं। इनको मुट्ठी भर चने दे दो। राजा-रानी दोनों ने कहा कि, हम इस प्रकार अनादर और कुवचन के साथ सदाव्रत अस्वीकार करते हैं। अगर ऐसी कंजूसी है तो सदाव्रत देने का दिखावा क्यों करते हो? इस पर दानाध्यक्ष गुस्सा हुआ और उसने कहा की हमारे राजा को कंजूस कहते हैं। इनको हवालात में बंद कर दो। इस तरह राजा-रानी दोनों को कोठरी में बंद कर दिया गया।
राजा नल और रानी दमयंती के अच्छे दिनो का वापस आना
रानी दमयंती द्वारा दशा माता का डोरा लेना
जिस कोठरी में राजा-रानी कैद थे, उसी के सामने आम रास्ता था। एक मेहतरानी राजा की घुड़साल को पार करके उसी रास्ते से निकला करती थी। एक दिन वह बहुत देर से आई। तब रानी ने उससे पूछा कि आज उसे कहाँ देर हो गई? वह बोली कि आज राजा की एक घोड़ी ने पहली बार बच्चा दिया है। तब रानी ने राजा से कहा कि एक बार मैंने तुम्हारी मुँह बोली बहन के दशा माता के डोरे का अनादर किया था। उसी दिन से हमारी दशा खराब हो गई। इसीलिए आज मैं दशा माता का डोरा लेती हूँ। राजा ने पूछा कि पूजा की सामग्री कहाँ से लाएगी। रानी ने कहा कि दशा माता ही सब कुछ करेगी। तब नौ तार राजा की पाग के, और एक तार अपने आँचल का लेकर रानी ने डोरा बनाया । और उसी समय से व्रत ठान लिया।
राजा नल और रानी दमयंती की कारावास से मुक्ति
थोड़ी देर में उस देश का राजा खुद घोड़े का बछड़ा देखने उसी रास्ते से निकला। राजा ने नल-दमयन्ती दोनों को बन्द देखकर पूछा कि, ये लोग कौन हैं ? किस कारण और किस अपराध के कारण यहाँ बंद हैं ? पहरेदारों ने कहा कि ये लोग भिक्षा लेने आए थे। आपको गालियाँ देते थे। इसी कारण इन लोगों को कैद करा दिया था।
राजा ने कहा कि यह तो कोई अपराध नहीं है। इनको संतुष्ट करना चाहिए। इनको अभी कैद से बाहर निकाल दो। राजा की आज्ञानुसार ,उसी समय नल-दमयन्ती दोनों कोठरी से बाहर निकाले गए। राजा उनके पाँव में पदम और माथे में चन्द्रमा का चिन्ह देखकर पहचान गया कि, ये राजा नल और दमयन्ती हैं। तब उसने विनीत भाव से क्षमा प्रार्थना की, और उन्हें हाथी पर बिठाकर अपने महल में ले गया।
राजा नल और रानी दमयंती का वापस अपने मित्र के यहाँ जाना
कुछ दिनों बाद राजा नल पूरे सज-धज कर अपनी राजधानी की ओर चले। पहले वे अपने मित्र के यहाँ गए। मित्र ने राजा नल के आने की खबर सुनकर पूछा, मित्र कैसे आए हैं। लोगों ने कहा, अबकी बार वे बड़े ठाट-बाट से आए हैं। मित्र ने कहा अच्छी बात है, आने दो। आखिर मित्र हैं। राजा-रानी दोनों मित्र के महल में गए। मित्र ने उनका स्वागत करके उन्हें फिर उसी स्थान में ठहरा दिया, जहाँ पहले ठहराया था।
आधी रात के समय राजा सो रहे थे, रानी पैर दबा रही थी। रानी ने देखा कि मोर का चित्र जो हार निगल गया था, अब हार को वापस उगल रहा है। रानी ने राजा को जगाकर दिखाया। राजा ने भी अपने मित्र को बुलाकर वह दृश्य दिखाया। तब मित्र बोला कि, मैंने न तब तुम्हें चोर माना था, और न अब मानता हूँ। यह सब कुदशा का परिणाम था। आप निश्चित रहिए, मेरे मन में कोई बुरा भाव नहीं है।
राजा नल और रानी दमयंती का वापस अपनी मुंह बोली बहन के यहाँ जाना
फिर वहाँ से चलकर राजा अपनी बहन के यहाँ गया। उन्होंने सुना कि राजा आया है। तब मुह बोली बहन ने पूछा की कैसे आए हैं? लोगों ने कहा कि जैसे राजाओं को आना चाहिए वैसे आए हैं। उसने कहा उनको मेरे महल में आने दो। जब राजा नल का हाथी, बहन के महल की ओर बढ़ा। तब रानी बोली की आप बहन के घर जाइए, मैं तो उसी कुम्हार के घर जाकर ठहरूंगी, जिसके यहाँ पहले ठहरी थी।
रानी कुम्हार के यहाँ ठहरी। राजा बहन के यहाँ गए। शाम को ननद, भाभी के लिए थाल सजा कर लायी । और भाभी के सामने रख दिया। भाभी ननद से नाराज थी। क्योंकि रानी के मन में था कि, पिछली बार ननद उनके लिए कंकड़-पत्थर लायी थी। यह देखकर ननद बोली कि, मुझसे तो जो हो सका, वो पहले भी लायी थी, और अब भी लायी हूँ।
सचमुच जब कुम्हार का चक्का उठा कर देखा गया तो उसके नीचे हीरे-मोती का ढेर लगा था। रानी देखकर स्तब्ध रह गई। वह बोली ननद, तुम्हारा कोई दोष नहीं है, यह सब मेरी कुदशा के कारण था। रानी ने ननद का लाया हुआ सब सामान और कुछ अपने तरफ से भी दिया, परन्तु दशा माता की पूजा का न्योता न दिया।
राजा नल और रानी दमयंती का वापस नदी के तट पर जाना
वहाँ से राजा और रानी आगे चले और नदी के तट पर पहुँचे। तो वहीं पड़ाव डाल दिया गया। राजा के लिए भोजन तैयार होने लगा। जब भोजन तैयार हो गया, राजा भोजन करने बैठे। पिछली बार जो रोटियाँ ईंटें हो गई थीं, वो फिर से रोटियाँ बन गईं। तब राजा ने पूछा कि, यह सब क्या है? तब रानी बोली, पिछली बार जब हम यहाँ आए थे ,तो मैंने कुछ रोटियाँ बनाई थीं। परन्तु वे सभी रोटियाँ ईंटें हो गई थीं। उस दिन मैंने आपको नहीं बताया, वरना आप मेरी बात नहीं मानते।
राजा नल और रानी दमयंती का अपनी राजधानी पहुँचना और दशा माता की पूजा करना
अब राजा और रानी सेना सहित आगे बढ़े। जब राजा नल की फौज अपनी राजधानी के पास पहुँची, तो सबने अपने राजा को पहचान लिया और बड़े खुश हुए। वे उन्हें महल में ले चले। राजा-रानी ने महल में प्रवेश करते ही दशामाता की पूजा का प्रबन्ध किया, और सौभाग्यवती स्त्रियों को आमंत्रण दिया। भोग के लिए सब तरह के पकवान बनाए गए। आटे की बटी हुई दस बत्तियाँ, दस गुड़-शक्कर की गुँझिया और दस-दस अठवाइयाँ सुहागिनों के आँचल में डाली गई। सुहागिनों का श्रृंगार आदि कराकर, दशा माता की पूजा आरम्भ हुई।
जब दिया जलाया गया तो दिया जला ही नहीं। तब पण्डित ने विचार करके कहा कि, यदि कोई न्योता पाने वाले को न्योता नहीं गया है ,तो याद किया जाए। उसके आ जाने पर दीपक जल जाएगा।
रानी ने कहा कि मैंने तो सभी को न्योता दिया है, सिर्फ मुँहबोली बहन को न्योता नहीं दिया है। रानी ने जल्दी से रथ भेजकर मुँहबोली बहन को बुलवाया। तब दिया भी जल गया। सुहागिनों को भोजन कराकर बिदा किया गया।
उसी समय राजा ने राज्य में हुक्म जारी किया कि, अब से प्रजा के सभी लोग दशा माता का व्रत किया करें। हे भगवती दशामाता जैसे आपने राजा नल के कष्ट दूर किए, वैसे सब के कष्ट दूर करना
राजा नल और रानी दमयंती की कथा से सीख
- सीख 1: धैर्य और विश्वास का का जीवन में बड़ा महत्व है। किसी भी स्थिति में धैर्य बनाए रखना चाहिए।
- सीख 2: ईश्वर भक्तों का कल्याण अवश्य करते हैं ।
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