ॐ मध्यम चरित्र के विष्णु ऋषि, महालक्ष्मी देवता, उष्णिक् छन्द, शाकम्भरी शक्ति, दुर्गा बीज, वायु तत्त्व और यजुर्वेद स्वरूप है।
श्री महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिये मध्यम चरित्र के पाठ में इसका विनियोग है।
मैं कमल के आसन पर बैठी हुई प्रसन्न मुखवाली महिषासुरमर्दिनी भगवती महालक्ष्मी का भजन करता हूँ, जो अपने हाथों में अक्षमाला, फरसा, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड़्ग, ढाल, शंख, घण्टा, मधुपात्र, शूल, पाश और चक्र धारण करती हैं।
देवताओं का महिशासुर से युद्ध में हारने पर भगवान शंकर और भगवान विष्णु की शरण में जाना
ऋषि कहते हैं।
पूर्वकाल में देवताओं और असुरों में पूरे सौ वर्षो तक घोर संग्राम हुआ था। उसमें असुरों का स्वामी महिषासुर था। और देवताओं के नायक इन्द्र थे। उस युद्ध में देवताओं की सेना महाबली असुरों से परास्त हो गयी। सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर महिषासुर इन्द्र बन बैठा। तब पराजित देवता प्रजापति ब्रह्माजी को आगे करके उस स्थान पर गये, जहाँ भगवान् शंकर और विष्णु विराजमान थे।
देवताओं ने महिषासुर के पराक्रम तथा अपनी पराजय का यथावतृ् वृत्तान्त उन दोनों देवेश्वरों से विस्तारपूर्वक कह सुनाया।
वे बोले-
भगवन् | महिषासुर सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, यम,वरुण तथा अन्य देवताओं के भी अधिकार छीनकर स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बना बैठा है। उस दुरात्मा महिष ने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। अब वे मनुष्यों की भाँति पृथ्वी पर विचरते हैं।
दैत्यों की यह सारी करतूत हमने आप लोगों से कह सुनायी। अब हम आपकी ही शरण में आये हैं। उसके वध का कोई उपाय सोचिये। इस प्रकार देवताओं के वचन सुनकर भगवान् विष्णु और शिव ने दैत्यों पर बड़ा क्रोध किया। उनकी भौंहें तन गयीं ।
समस्त देवताओं की शक्तियों से देवी का प्रादुर्भाव
तब अत्यन्त कोप में भरे हुए चक्रपाणि श्रीविष्णु के मुख से एक महान् तेज प्रकट हुआ। इसी प्रकार ब्रह्मा, शंकर तथा इन्द्र आदि अन्यान्य देवताओं के शरीर से भी बड़ा भारी तेज निकला। वह सब मिलकर एक हो गया। महान तेज का वह पुंज जाज्वल्यमान पर्वत-सा जान पड़ा। देवताओं ने देखा, वहाँ उसकी ज्वालाएँ सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त हो रही थीं। सम्पूर्ण देवताओं के शरीर से प्रकट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी। एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणत हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त जान पड़ा ।
भगवान् शंकर का जो तेज था, उससे उस देवी का मुख प्रकट हुआ। यमराज के तेज से उसके सिर में बाल निकल आये। श्री विष्णु भगवान् के तेज से उसकी भुजाएँ उत्पन्न हुईं। चंद्रमा के तेज से दोनों स्तनों का और इंद्र के तेज से मध्य भाग का प्रादुर्भाव हुआ। वरुण के तेज से जंघा और पिंडली तथा पृथ्वी के तेज से नितम्ब भाग प्रकट हुआ । ब्रह्मा के तेज से दोनों चरण और सूर्य के तेज से उसकी अंगुलियाँ हुईं। वसुओं के तेज से हाथों की अंगुलियाँ और कुबेर के तेज से नासिका प्रकट हुई । उस देवी के दाँत प्रजापति के तेज से और तीनों नेत्र अग्नि के तेज से प्रकट हुए थे। उसकी भौंहें संध्या के और कान वायु के तेज से उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार अन्य देवताओं के तेज से भी उस कल्याणमयी देवी का आविर्भाव हुआ । इसके बाद समस्त देवताओं के तेजःपुंज से प्रकट हुई देवी को देखकर महिषासुर के सताये हुए देवता बहुत प्रसन्न हुए।
देवताओं द्वारा देवी को अस्त्र शस्त्र और आभूषण प्रदान करना
भगवान शंकर ने अपने शूल से एक शूल निकालकर उन्हें दिया। फिर भगवान विष्णु ने भी अपने चक्र से चक्र उत्पन्न करके भगवती को अर्पण किया । वरुण ने भी शंख भेंट किया। अग्नि ने उन्हें शक्ति दी और वायु ने धनुष तथा बाण से भरे हुए दो तरकश प्रदान किये । सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से वज्र उत्पन्न करके दिया और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घण्टा भी प्रदान किया। यमराज ने कालदण्ड से दण्ड, वरुण ने पाश, प्रजापति ने स्फटिक माला तथा ब्रह्मा जी ने कमण्डलु भेंट किया। सूर्य ने देवी के समस्त रोम-कूपों में अपनी किरणों का तेज भर दिया। काल ने उन्हें चमकती हुई ढाल और तलवार दी।
क्षीरसमुद्र ने उज्ज्वल हार तथा कभी जीर्ण न होने वाले दो दिव्य वस्त्र भेंट किये। साथ ही उन्होंने दिव्य चूड़ामणि, दो कुण्डल, कड़े, उज्ज्वल अर्धचन्द्र , सब बाहुओं के लिए केयूर, दोनों चरणों के लिए निर्मल नूपुर, गले की सुंदर हँसली और सब अंगुलियों में पहनने के लिए रत्नों की बनी अंगूठियाँ भी दीं । विश्वकर्मा ने उन्हें अत्यंत निर्मल फरसा भेंट किया। साथ ही अनेक प्रकार के अस्त्र और अभेद्य कवच दिये। इनके सिवा मस्तक और वक्षस्थल पर धारण करने के लिए कभी न कुम्हलाने वाले कमलों की मालाएँ दीं। जलधि ने उन्हें सुंदर कमल का फूल भेंट किया। हिमालय ने सवारी के लिए सिंह तथा भाँति-भाँति के रत्न समर्पित किये । धनाध्यक्ष कुबेर ने मधु से भरा पान पात्र दिया तथा सम्पूर्ण नागों के राजा शेष ने, उन्हें बहुमूल्य मणियों से विभूषित नागहार भेंट दिया। इसी प्रकार अन्य देवताओं ने भी आभूषण और अस्त्र-शस्त्र देकर देवी का सम्मान किया ।
देवी की शक्ति का विवरण
तत्पश्चात उन्होंने बारंबार अट्टहासपूर्वक उच्चस्वर से गर्जना की। उनके भयंकर नाद से सम्पूर्ण आकाश गूँज उठा। देवी का वह अत्यंत उच्चस्वर से किया हुआ सिंहनाद कहीं समा न सका, आकाश उसके सामने छोटा लगने लगा। उससे बड़े जोर की प्रतिध्वनि हुई, जिससे सम्पूर्ण विश्व में हलचल मच गयी और समुद्र काँप उठे । पृथ्वी डोलने लगी और समस्त पर्वत हिलने लगे। उस समय देवताओं ने अत्यंत प्रसन्नता के साथ सिंहवाहिनी भवानी से कहा देवी! तुम्हारी जय हो। साथ ही महर्षियों ने भक्तिभाव से विनम्र होकर उनका नमन किया।
सम्पूर्ण त्रिलोकी को क्षोभग्रस्त देख दैत्यगण अपनी समस्त सेना को कवच आदि से सुसज्जित कर, हाथों में हथियार ले उठकर खड़े हो गए। उस समय महिषासुर ने बड़े क्रोध में आकर कहा – यह क्या हो रहा है?
फिर वह सारे असुरों से घिरकर उस सिंहनाद की ओर दौड़ा और आगे पहुँचकर उसने देवी को देखा, जो अपनी प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थीं । उनके चरणों के भार से पृथ्वी दबी जा रही थी। माथे के मुकुट से आकाश में रेखा-सी खिंच रही थी तथा वे अपने धनुष की टंकार से सातों पातालों को श्रुब्ध किये देती थीं । देवी अपनी हजारों भुजाओं से सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित करके खड़ी थीं।
देवी का महिशासुर की सेना के साथ युद्ध का विवरण
तदनन्तर उनके साथ दैत्यों का युद्ध छिड़ गया ।
अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार से सारी दिशाएँ गूंज उठी। चिक्षुर नामक महान असुर महिषासुर का सेनानायक था । वह देवी के साथ युद्ध करने लगा। अन्य दैत्यों की चतुरंगिणी सेना साथ लेकर चामर भी लड़ने लगा। साठ हजार रथियों के साथ आकर उदग्र नामक महादैत्य ने भी मोर्चा संभाल लिया। एक करोड़ रथियों को साथ लेकर महाहनु नामक दैत्य युद्ध करने लगा। जिसके रोएँ तलवार के समान तीखे थे, वह असिलोमा नामक महादैत्य पाँच करोड़ रथी सैनिकों सहित युद्ध में आ डटा। साठ लाख रथियों से घिरा हुआ बाष्कल नामक दैत्य भी उस युद्धभूमि में लड़ने लगा।
परिवारित नामक राक्षस हाथीसवार और घुड़सवारों के अनेक दलों तथा एक करोड़ रथियों की सेना लेकर युद्ध करने लगा। बिडाल नामक दैत्य पाँच अरब रथियों से घिरकर युद्ध करने लगा। इनके अतिरिक्त और भी हजारों महादैत्य रथ, हाथी और घोड़ों की सेना साथ लेकर वहाँ देवी के साथ युद्ध करने लगे।
स्वयं महिषासुर उस रणभूमि में हजारों रथ, हाथी और घोड़ों की सेना से घिरा हुआ खड़ा था।
वे दैत्य देवी के साथ तोमर, भिन्दिपाल, शक्ति, मूसल, खड्ग, परशु और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करते हुए युद्ध कर रहे थे। कुछ दैत्यों ने उन पर शक्ति का प्रहार किया, कुछ लोगों ने पाश फेंके । तथा कुछ दूसरे दैत्यों ने खड्ग प्रहार करके देवी को मार डालने की कोशिश करी। देवी ने भी क्रोध में भरकर खेल-खेल में ही अपने अस्त्र-शस्त्रों से दैत्यों के वे सारे अस्त्र-शस्त्र काट डाले। उनके मुख पर थकावट का थोड़ा भी चिह्न नहीं दिखाई देता था। देवता और ऋषि उनकी स्तुति करते थे और वे भगवती परमेश्वरी दैत्यों के शरीरों पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करती रहीं।
देवी का वाहन सिंह भी क्रोध में भरकर गर्दन के बालों को हिलाता हुआ असुरों की सेना में इस प्रकार घूमने लगा, मानो वनों में सब तरफ आग फैल गयी हो। रणभूमि में दैत्यों के साथ युद्ध करती हुई अम्बिका देवी ने जितने निःश्वास छोड़े, वे सभी तत्काल सैकड़ों-हजारों गणों के रूप में प्रकट हो गये और परशु, भिन्दिपाल, खड्ग तथा पट्टिश आदि अस्त्रों से असुरों का सामना करने लगे ।
देवी की शक्ति से बढ़े हुए वे गण असुरों का नाश करते हुए नगाड़ा, शंख और मृदंग बजाने लगे। देवी ने त्रिशूल से, गदा से, शक्ति की वर्षा से और खड्ग आदि से सैकड़ों महादैत्यों का संहार कर डाला। कितनों को घण्टे के भयंकर नाद से मूच्छित करके मार गिराया । बहुत सारे दैत्यों को पाश से बाँधकर धरती पर घसीटा। कितने ही दैत्य उनकी तीखी तलवार की मार से दो-दो टुकड़े हो गये । बहुत सारे गदा की चोट से घायल हो गये। कितने ही मूसल की मार से रक्त वमन करने लगे। कुछ दैत्य शूल से छाती फट जाने के कारण ढेर हो गये। उस रण में बाणों की वर्षा से कितने ही असुरों की कमर टूट गयी । बाज की तरह झपटने वाले, देवताओं को सताने वाले दैत्य अपने प्राणों से हाथ धोने लगे। कई दैत्यों की भुजाएँ कट गयी। कितने ही दैत्यों के मस्तक कट-कटकर गिरने लगे। कुछ लोगों के शरीर मध्यभाग में से कट गये। कितने ही महादैत्य जाँघें कट जाने से पृथ्वी पर गिर पड़े। कितनों को तो देवी ने एक बाँह, एक पैर और एक नेत्रवाले करके दो टुकड़ों में चीर डाला।
कितने ही दैत्य मस्तक कट जाने पर भी गिरकर फिर उठ जाते और केवल धड़ के ही रूप में अच्छे-अच्छे हथियार हाथ में ले देवी के साथ युद्ध करने लगते थे। कितने ही बिना सिर के धड़ हाथों में खड्ग, शक्ति और ऋष्टि लिये दौड़ते थे तथा कई महादैत्य देवी को युद्ध के लिये ललकारते थे। जहाँ वह घोर संग्राम हुआ था, वहाँ की धरती देवी के गिराये हुए रथ, हाथी, घोड़े और असुरों की लाशों से ऐसी पट गयी थी कि वहाँ चलना-फिरना असम्भव हो गया था ।
दैत्यों की सेना में हाथी, घोड़े और असुरों के शरीरों से इतनी अधिक मात्रा में रक्तपात हुआ था कि थोड़ी ही देर में वहाँ खून की बड़ी-बड़ी नदियाँ बहने लगीं । माँ जगदम्बा ने असुरों की विशाल सेना को क्षणभर में नष्ट कर दिया। ठीक उसी तरह, जैसे घास फूस के भारी ढेर को आग कुछ ही क्षणों में भस्म कर देती है ।
और वह सिंह भी गर्दन के बालों को हिला-हिलाकर जोर-जोर से गर्जना करता हुआ दैत्यों के शरीरों से मानो उनके प्राण चुन लेता था । वहाँ देवी के गणों ने भी न महादैत्यों के साथ ऐसा युद्ध किया, जिससे आकाश में खड़े हुए देवतागण उन पर बहुत संतुष्ट हुए और फूल बरसाने लगे।
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराण में सावार्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवी महातमय में ‘महिषासुर की सेना का वध! नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ।
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